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परों में शाम ढलती है | शाही शायरी
paron mein sham Dhalti hai

नज़्म

परों में शाम ढलती है

अब्बास ताबिश

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कहाँ जाना था मुझ को
किस नगर की ख़ाक बालों में सजाना थी

मुझे किन टहनियों से धूप चुनना थी
कहाँ ख़ेमा लगाना था

मिरी मिट्टी रह-ए-सय्यारगाँ की हम-क़दम निकली
मिरी पलकों पे तारे झिलमिलाते हैं

बदन में आग जलती है
मगर पाँव में ख़ूँ-आशाम रस्ते लड़खड़ाते हैं

ये क्या शीराज़ा-बंदी है
ये मेरी बे-परी किस कुंज से हो कर बहम निकली

नज़र में दिन निकलता है
परों में शाम ढलती है

मगर मैं तो लहू की मुंजमिद सिल हूँ
बदन की किश्त-ए-वीराँ में

ये किस की उँगलियों ने उम्र भर मुझ को कुरेदा है
कहाँ शिरयान में चलता हुआ ये क़ाफ़िला ठहरा

कि मैं उस हाथ की रेखाओं में रंग-ए-हिना ठहरा
कहाँ जाना था मुझ को

किस जगह ख़ेमा लगाना था