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पैरिस | शाही शायरी
paris

नज़्म

पैरिस

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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दिन ढला कूचा ओ बाज़ार में सफ़-बस्ता हुईं
ज़र्द-रू रौशनियाँ

उन में हर एक के कश्कोल से बरसें रिम-झिम
इस भरे शहर की नासूदगियाँ

दूर पस-मंज़र-ए-अफ़्लाक में धुँदलाने लगे
अज़्मत-ए-रफ़्ता के निशाँ

पेश-ए-मंज़र में
किसी साया-ए-दीवार से लिपटा हुआ साया कोई

दूसरे साए की मौहूम सी उम्मीद लिए
रोज़-मर्रा की तरह

ज़ेर-ए-लब
शरह-ए-बेदर्दी-ए-अय्याम की तम्हीद लिए

और कोई अजनबी
इन रौशनियों सायों से कतराता हुआ

अपने बे-ख़्वाब शबिस्ताँ की तरफ़ जाता हुआ
Paris

The day faded away, and down the streets
and alleyways

were arrayed pallid lampposts
from whose bowls rained down

this crowded city's frustrations.
Over there

the vestiges of past glory
began to look hazy against the skyline

and there, in front of the eye,
some shadow embraced a wall's shadow

cherishing the faint hope for another shadow—
an everyday occurrence—

prefaces a mute comment
on the harshness of time;

and some stranger
skirting these lights, these shadow,

presses on towards his dreamless bed-chamber.