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परिंदा | शाही शायरी
parinda

नज़्म

परिंदा

बलराज कोमल

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परिंदा आसमाँ की नीलगूँ मेहराब के उस पार जाता है
परिंदा बाल-ओ-पर है आँख है लेकिन

सुनहरी चोंच से पर्वाज़ करता है
सड़क पर धूप है और धूप में सायों के नाख़ुन हैं

घरों में ख़ोल हैं और आँगनों में ख़ार उगते हैं
किसी का कौन है कोई नहीं सब अजनबी हैं हैरत-ओ-हसरत में ज़िंदा हैं

वो औरत है
वो ख़्वाहिश के लपकते ख़ंजरों से प्यार करती है

वो उस का हम-सफ़र है ख़ाक-ओ-ख़ूँ उस का मुक़द्दर है
ये मौज-ए-आब है अब फूल है अब पेड़ है कल सिर्फ़ पत्ता है

अगर ये ज़िंदगी करने की कोशिश में परेशाँ हैं
ये अक्सर क़त्ल करते हैं

ये अक्सर क़त्ल होते हैं
लहू के पार गुलशन है मगर गुलशन लहू में है

निगाहों में उजड़ते शहर की मानिंद तस्वीरों का मेला है
हुजूम-ए-संग-ओ-आहन में

कोई आवाज़ देता है कोई आवाज़ सुनता है
मगर आवाज़ से आवाज़ का रिश्ता नहीं होता

मगर आवाज़ से आवाज़ का हर हर सिलसिला बे-कार होता है
ये मंज़र तैरता है आब-ए-जू में हाए लेकिन अजनबी क्यूँ है

मैं मंज़र हूँ तसलसुल हूँ
मगर मैं अजनबी क्यूँ हूँ

ये फ़र्श-ए-आब-ओ-गिल मेरे लिए इक सिलसिला क्यूँ है
परिंदा आसमाँ की नीलगूँ मेहराब के उस पार चाहता हूँ

परिंदा फ़ासला क्यूँ है
परिंदा मावरा क्यूँ है