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परस्तार | शाही शायरी
parastar

नज़्म

परस्तार

जावेद अख़्तर

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वो जो कहलाता था दीवाना तिरा
वो जिसे हिफ़्ज़ था अफ़्साना तिरा

जिस की दीवारों पे आवेज़ां थीं
तस्वीरें तिरी

वो जो दोहराता था
तक़रीरें तिरी

वो जो ख़ुश था तिरी ख़ुशियों से
तिरे ग़म से उदास

दूर रह के जो समझता था
वो है तेरे पास

वो जिसे सज्दा तुझे करने से
इंकार न था

उस को दर-अस्ल कभी तुझ से
कोई प्यार न था

उस की मुश्किल थी
कि दुश्वार थे उस के रस्ते

जिन पे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर
घूमते रहज़न थे

सदा उस की अना के दर पे
उस ने घबरा के

सब अपनी अना की दौलत
तेरी तहवील में रखवा दी थी

अपनी ज़िल्लत को वो दुनिया की नज़र
और अपनी भी निगाहों से छुपाने के लिए

कामयाबी को तिरी
तिरी फ़ुतूहात

तिरी इज़्ज़त को
वो तिरे नाम तिरी शोहरत को

अपने होने का सबब जानता था
है वजूद उस का जुदा तुझ से

ये कब मानता था
वो मगर

पुर-ख़तर रास्तों से आज निकल आया है
वक़्त ने तेरे बराबर न सही

कुछ न कुछ अपना करम उस पे भी फ़रमाया है
अब उसे तेरी ज़रूरत ही नहीं

जिस का दावा था कभी
अब वो अक़ीदत ही नहीं

तेरी तहवील में जो रक्खी थी कल
उस ने अना

आज वो माँग रहा है वापस
बात इतनी सी है

ऐ साहिब-ए-नाम-ओ-शोहरत
जिस को कल

तेरे ख़ुदा होने से इंकार न था
वो कभी तेरा परस्तार न था