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पैग़ाम | शाही शायरी
paigham

नज़्म

पैग़ाम

ज़िया जालंधरी

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अब कि इक उम्र की महरूमी से
दिल ने समझौता सा कर रक्खा था

अब कि इस रुत में किसी पेड़ पे पत्ता था न फूल
अब के हर तरह के दुख के लिए तय्यार था दिल

किस लिए सूखी हुई शाख़ पे ये शोला सी कोंपल फूटी
किस लिए तेरा ये पैग़ाम आया