EN اردو
पहला मंज़र | शाही शायरी
pahla manzar

नज़्म

पहला मंज़र

खुर्शीद अकबर

;

सर्द यख़-बस्ता मौसमों की नवेद
जाने किस किस के नाम आई थी

कोहर-आलूद थी फ़ज़ा ऐसी
सुब्ह कुछ ऊँघती हुई जागी

उस की आग़ोश से हुमकता हुआ
एक सूरज क़ुलांचें भरता हुआ

आसमान-ए-फ़ुसूँ के मैदाँ में
शोख़ किरनों को छेड़ता निकला

हो गया ख़ित्ता-ए-उफ़ुक़ गुल-रंग
मैं था महबूस अपने कमरे में

दफ़अ'तन देखता हूँ नूर-ए-करीम
है खड़ा याद के दरीचे पर

चंद मासूम सा सवाल लिए
झाँकता है इधर उधर शश्दर

दूसरा मंज़र
याद है फ़रवरी महीना था

नौ शगुफ़्ता नई बहार के दिन
फेसबुक पर मिले थे जब दोनों

उस ने की इल्तिजा रिफ़ाक़त की
मैं ने हँस कर उसे क़ुबूल किया

गर्म शो'ला था उस को फूल किया
उस ने दिल का सलाम भेजा था

मैं ने जाँ का पयाम भेजा था