एक जवान सी और दीवानी औरत को
मैं ने सड़क पर अक्सर घूमते देखा है
गाह किसी साए की तरफ़ मसरूफ़-ए-ख़िराम
और कभी वहशत में झूमते देखा है
उस की सुर्ख़ आँखों में पागल-पन के सिवा
और भी कुछ है जिस का कोई नाम नहीं
इक ऐसी बेदारी उस पर तारी है
जिस के मुक़द्दर में अब कोई शाम नहीं
उस के पत्थर जैसे चुप-चुप चेहरे पर
इक संगीन उदासी नाचती रहती है!
उस की सोई सोई गहरी पलकों में
रातों की तारीकी जागती रहती है!
उस के माथे पर बिखरी ज़ुल्फ़ों का धुआँ
जैसे ख़त्म न होने वाला चाँद गहन
क्या जाने किस आँख से टूटा तारा है
क्या जाने किस सूरज की आवारा किरन
क्या जाने किस की बेटी है किस की बहन
क्या जाने किस बाप का दिल किस माँ का नूर
एक बगूला अपने वीराने से जुदा
एक भटकती रूह अपने मरक़द से दूर
वो फ़ुट-पाथ पे और कभी शहराहों पर
क्या जाने किस धुन में तन्हा फिरती है
शब को आख़िर बार-ए-मसाफ़त से थक कर
क्या जाने किस गोशे में जा गिरती है
कोई शरीअत जिस से नहीं ले सकती हिसाब
जिस का दिल नेकी से ख़ाली है
जाने किस सग-ज़ादा ख़बासत के हाथों
अब वो बच्चे की माँ बनने वाली है!
नज़्म
पागल औरत
सहबा अख़्तर