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ऑक्टोपस | शाही शायरी
octopus

नज़्म

ऑक्टोपस

नादिया अंबर लोधी

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मज़हब का ऑक्टोपस
पकड़ लेता है फ़र्द को

उस के बाज़ू फैल जाते हैं
हर मसाम हर उज़्व पर

ये हावी हो जाता है
हर हर साँस पर

इफ़रीत बन कर निगल लेता है
जज़्बात के रेशमी थानों को

मसल कर रख देता है
दिल-सोख़्ता की हर ख़्वाहिश को

सिलें रख देता है दिल-ए-नाज़ुक पर
ऊपर से नीचे तक

बे-शुमार बे-हिसाब
जो मचले शिकार उस का

और सख़्त हो जाती है
गिरफ़्त उस की

ज़रा सी कुशादगी भी नहीं भाती उस को
मोहब्बत की सादगी

कहाँ पसंद आती है उस को
उस की क़ुमची हर वक़्त बरसने को तय्यार है

जज़्बात के खेल में
फ़र्द का एहसास

क्यूँ है क़ाबिल-ए-एतराज़