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निरवान | शाही शायरी
nirwan

नज़्म

निरवान

वज़ीर आग़ा

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मिरी साँस का सिलसिला
ऐसे टूटे कि इक मस्त झोंके के मानिंद गिरती लुढ़कती हुई उम्र मेरी

हरी लाँबी मख़मल सी ख़ुशबू भरी घास में
अपने नंगे बदन को उतारे

न आँसू गिराए न दामन पसारे
फ़क़त हाथ के अल-विदाई इशारे से

अपने तआ'क़ुब में आते परिंदों को रुख़्सत करे
और ख़ुद घास की झील में डूब जाए

मिरी साँस का सिलसिला
यूँ न टूटे कि इक तुंद झोंके के मानिंद उड़ती हुई उम्र मेरी

किसी बंद उजड़े हुए शहर में दफ़अ'तन ख़ुद को पाए
भयानक ख़मोशी का इक डोलता क़हक़हा

उस की रग रग में उतरे तो वो बौखलाए
क़तारों में लेटी हुई मुर्दा गलियों में भटके

मकानों में उतरे मुंडेरों पे आए
सियह छोटी ईंटों की फ़र्सूदा दीवार को अपनी पोरों से छू कर

कोई दर ढूँडे कोई राह माँगे
अचानक किसी सर्द खम्बे की बे-नूर आँखों से झाँके

बड़े कर्ब से गिड़गिड़ाए
ख़ुदारा कोई मुझ को बाहर निकलने का रस्ता बताए

ख़ुदारा कोई मुझ को बाहर निकलने का रस्ता बताए