में कपिलवस्तु का शहज़ादा नहीं
दर्दमंदी की हवस
निरवान की ख़्वाहिश
कभी दिल में समाई भी नहीं
मैं कि बरगद के तक़द्दुस से भी था ना-आश्ना
और आज भी
छाँव की हद तक दरख़्तों से है मेरी दोस्ती
मैं इक ऐसा तिफ़्ल-ए-मकतब था
ज़रा सी भूल पर जो सरज़निश के ख़ौफ़ से
जंगल की जानिब चल पड़े
राह में कुछ हम-सफ़र ऐसे मिलें
जो उसे विद्यार्थी समझें
कुछ ऐसे लोग भी
जो उसे सहमी हुई सी चोर नज़रों के सबब
मुश्तरक दुश्मन का इक जासूस समझें
और इशारों में कहीं
ये कपिलवस्तु का शहज़ादा नहीं
क्या ख़बर शायद मनु जी का कोई चेला हो
या फिर चानक्य जी का कोई मुख़्बिर न हो
यूँ उम्मीद-ओ-बीम का सरहद के गहरे दरमियानी फ़ासले को
मैं ने मुश्किल से अँधेरी रात में तय कर लिया
और शारदा के खंडरों तक आ गया
जब सहर होने को थी
मैं शारदा के खंडरों से चल दिया
शारदा का पुल मरे क़दमों में था
तब सिपाही का पुकारा कौन है
यूँ विसाल-ए-सुब्ह का अरमाँ फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब बन गया
ख़ुद फ़रेबी और ख़ुश-फ़हमी के सारे रास्ते मसदूद हो कर रह गए
ध्यान ने जब दिल को समझाया सिपाही कौन था
अब मैं क़तअन ज्ञान और मुक्ती का दिल-दादा नहीं
मैं कपिलवस्तु का शहज़ादा नहीं
नज़्म
निरवान
ताऊस