वक़्त की दलदल में धंसता जा रहा हूँ
मेरे चारों ओर गदली लजलजी यादों की तह है
सर पे बीती उम्र के टूटे हुए लम्हों का बोझ
इस सफ़र की इब्तिदा कैसे हुई थी
ये ख़बर मुझ को नहीं
याद बस इतना है
मेरे वालिद-ए-मरहूम कुछ ऊपर ही मुझ से रह गए थे
इंतिहा क्या है सफ़र की
कौन जाने
साँस का हर ताज़ियाना
मुझ को नीचे और नीचे की तरफ़ ही खींचता है
जाने मैं तह तक भी पहुँचूँगा
कि वालिद की तरह
अपने बच्चों को भी धंसने के लिए कह जाऊँगा
वक़्त की दलदल में धंसता जा रहा हूँ

नज़्म
नीचे की ओर
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी