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नाईट-कलब | शाही शायरी
night-club

नज़्म

नाईट-कलब

सलीम बेताब

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नई तहज़ीब के शहकार-ए-अज़ीम!
तेरी पुर-कैफ़ ओ तरब-ख़ेज़ फ़ज़ाओं को सलाम!

कितने नौ-ख़ेज़ ओ हसीं जिस्म यहाँ चारों तरफ़
रक़्स में महव हैं उर्यानी की तस्वीर बने

अपनी रानाई ओ ज़ेबाई की तश्हीर बने
साज़-ए-पुर-जोश की संगत में थिरकते जोड़े

फ़र्श-ए-मरमर पे फिसलते हैं बहक जाते हैं
दौड़ती जाती है रग रग में शराब-ए-गुलफ़म

नई तहज़ीब के शहकार-ए-अज़ीम!
तेरी पुर-कैफ़ ओ तरब-ख़ेज़ फ़ज़ाओं को सलाम!

उन की आँखों से छलकती है हवस की मस्ती
उन के सीनों में फ़रोज़ाँ हैं वो जिंसी शोले

जिन की इक एक लपट से है भसम शर्म-ओ-हया
क़हक़हे, साज़ की तानों में ढले जाते हैं

लम्स की आग में सब जिस्म जले जाते हैं
आँख के डोरों में पोशीदा हैं मुबहम से पयाम

नई तहज़ीब के शहकार-ए-अज़ीम!
तेरी पुर-कैफ़ ओ तरब-ख़ेज़ फ़ज़ाओं को सलाम

धड़कनें तेज़ हुईं शौक़ की लय बढ़ने लगी
जिस्म पर तंगी-ए-मल्बूस ज़रा और बढ़ी

आँख में नश्शे की इक लहर ज़रा और चढ़ी
लर्ज़िश-ए-पा से झलकने लगी दिल की लग़्ज़िश!

दफ़अ'तन जाज़ की पुर-जोश सदा बंद हुई
रौशनी डूब गई फैल गई ज़ुल्मत-ए-शब....

जिस्म से जिस्म की क़ुर्बत जो बुझाने लगी आग
दोपहर ढल गई जज़्बात की होने लगी शाम

नई तहज़ीब के शहकार-ए-अज़ीम!
तेरी पुर-कैफ़ ओ तरब-ख़ेज़ फ़ज़ाओं को सलाम

जल गया सीना-ए-सोज़ाँ में ही इंसाँ का ज़मीर
रूह की चीख़ फ़ज़ाओं में कहीं डूब गई

रुख़-ए-तहज़ीब पसीने में शराबोर हुआ
इल्म है सर-ब-गरेबाँ ओ अदब मोहर-ब-लब

किस से इस दौर-ए-जराहत में हो मरहम की तलब
मुल्क-ए-तहज़ीब में चंगेज़ है फिर ख़ूँ-आशाम

नई तहज़ीब के शहकार-ए-अज़ीम!
तेरी पुर-कैफ़ ओ तरब-ख़ेज़ फ़ज़ाओं को सलाम