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नेहरू | शाही शायरी
nehru

नज़्म

नेहरू

कैफ़ी आज़मी

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मैं ने तन्हा कभी उस को देखा नहीं
फिर भी जब उस को देखा वो तन्हा मिला

जैसे सहरा में चश्मा कहीं
या समुंदर में मीनार-ए-नूर

या कोई फ़िक्र-ए-औहाम में
फ़िक्र सदियों अकेली अकेली रही

ज़ेहन सदियों अकेला अकेला मिला
और अकेला अकेला भटकता रहा

हर नए हर पुराने ज़माने में वो
बे-ज़बाँ तीरगी में कभी

और कभी चीख़ती धूप में
चाँदनी में कभी ख़्वाब की

उस की तक़दीर थी इक मुसलसल तलाश
ख़ुद को ढूँडा किया हर फ़साने में वो

बोझ से अपने उस की कमर झुक गई
क़द मगर और कुछ और बढ़ता रहा

ख़ैर-ओ-शर की कोई जंग हो
ज़िंदगी का हो कोई जिहाद

वो हमेशा हुआ सब से पहले शहीद
सब से पहले वो सूली पे चढ़ता रहा

जिन तक़ाज़ों ने उस को दिया था जनम
उन की आग़ोश में फिर समाया न वो

ख़ून में वेद गूँजे हुए
और जबीं पर फ़रोज़ाँ अज़ाँ

और सीने पे रक़्साँ सलीब
बे-झिझक सब के क़ाबू में आया न वो

हाथ में उस के क्या था जो देता हमें
सिर्फ़ इक कील उस कील का इक निशाँ

नश्शा-ए-मय कोई चीज़ है
इक घड़ी दो घड़ी एक रात

और हासिल वही दर्द-ए-सर
उस ने ज़िंदाँ में लेकिन पिया था जो ज़हर

उठ के सीने से बैठा न इस का धुआँ