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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

ज़ीशान साहिल

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मोहब्बत पेश-क़दमी करती है
और अपनी फ़ौज में

किसी सिपाही को भरती नहीं करती
किसी टैंक को अपने साथ नहीं रखती

कोई बकतर-बंद गाड़ी या तोप-ख़ाना
अपनी हिफ़ाज़त के लिए इस्तिमाल नहीं करती

किसी तय्यारे से
मैदान-ए-जंग का जाएज़ा नहीं लेती

मोहब्बत पेश-क़दमी करती है
और सारी दुनिया के तीर

ज़हर में बुझा लिए जाते हैं
सारे नेज़ा-बाज़

घात लगा के बैठ जाते हैं
सारी तलवारें

नियाम से बाहर आ जाती हैं
उसे अपनी टापों तले रौंदने के लिए

शह-सवार तय्यार हो जाते हैं
बादशाहों का ग़ुस्सा

काली आँधी बन के
उस तरफ़ बढ़ने लगता है

अपने दिल पे हाथ रख के
मोहब्बत पेश-क़दमी करती है

और उस का जहाज़
कभी ग़र्क़ नहीं होता

उस का अस्लहा कभी ख़त्म नहीं होता
मोहब्बत की हमेशा जारी रहने वाली

ये पेश-क़दमी कोई रोक नहीं पाता
थक-हार के उस के साथ साथ चलने लगता है