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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

शबनम अशाई

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सच से
घर नहीं बनते

मेरी लकड़ी सच थी
घर नहीं कश्ती बनी

सच की कश्ती को खेती हुई
मेरी रूह

न जाने किन किन पानियों से गुज़र रही है
पानी की शक्ल मुक़र्रर नहीं

मरने का वक़्त मुक़र्रर होता है
कश्ती को मेरी रूह से ज़ियादा

पानी मुआफ़िक़ है
देव-दार की उम्र पानी में बढ़ जाती है

और दुनिया में
ढोंग न रचाने वाले की उम्र

घट जाती है
मौत के साहिल पे उतरने के लिए

मैं सच की कश्ती में डोल रही हूँ