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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

शबनम अशाई

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ढेर सारी
रेत के नीचे दबी

एक रूह
देर गए

रेत हटाने की कोशिश में
अपने नाख़ुन तोड़ बैठी

यूँ तो
कुछ तोड़ना भी अच्छा लगता है

जो टूटने से बच सकता है
क़त्ल हो जाता है

वैसे
क़त्ल होना ही जीने का सच है

और
इस लम्हे का सच यही है

कि सदियों बा'द ऐसा वाक़िआ हुआ था
कि रेत के ज़र्रे

उस की आँखों में चुभ जाने से रह गए
देखा तो

सामने भीड़ थी
शोर-ओ-ग़ुल था

और एक खोखली आवाज़
जो

दूर कहीं जा के
ज़िंदगी का संतूर

छेड़ रही थी
मुझे लगा था

उस आवाज़ पे तुम्हारी आवाज़ का साया था