EN اردو
नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

सफ़िया अरीब

;

सहरा-ए-हस्ती
में

एक चीज़
आवारा भटकती रही

मर गई
प्यास से

ज़र्द-रू
चमन में

गर्द-ओ-ग़ुबार
अंगड़ाइयाँ

ले रहा है
ख़ुश्क पत्ते

मुंतज़िर हैं
जुम्बिश-ए-यक-तार नफ़स के

और
दीदा नम

टुकटुकी बाँधे
रास्ता

तक रहे हैं
क़ासिद का

जाने कब
रिहाई का परवाना

आए गा
घटाएँ

झूम के आती हैं
घर के

आँगन पर
न पूछो

कैसे रिसती हैं
खुल भी जाती हैं

पर
घटाएँ

कमरे से
दूर रहती हैं

सब्ज़ा
दीवार से बाहर

लहकता है
कमरे में

सिर्फ़
एक लैम्प

जलता है
मौत और

ज़िंदगी
के दरमियाँ

फ़ासला बहुत
लगता है

मैं
मौत के हम-राह

ज़िंदगी के साथ
मर रही हूँ

ख़ामोशी की
आदत डालो

सुकून मिल
जाए गा

हाँ
ख़ामोशी

बे-आवाज़ ख़ामोशी
एक बार

अल्फ़ाज़ को
तोड़ दो

मअ'नों के
कर्ब से

नजात मिल जाएगा
सारी जंगें

आप ही आप
रुक जाएँगी

मिरी आँखों
से अब

अल्फ़ाज़ की
बूँदें टपकती हैं

टपकने दो
टपकने दो