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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

रतन नाथ सरशार

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झलका झलका सपीद-ए-सुब्ह
झलका झलका सपीद-ए-सुब्ह

तारे छुपते हैं झिलमिला कर
है नूर सा जल्वा-गर फ़लक पर

भीनी भीनी महक गुलों की
और नग़्मा-ज़नी वो बुलबुलों की

वक़्त-ए-सहरा और तंग हुआ है
बे-मय सब किरकिरा मज़ा है

इक चुल्लू के देने में ये तकरार
उठो जागो सहर हुई यार

दरिया की तरफ़ चले नहाने
ग़ट परियों के ज़नान-ख़ाने

मुर्ग़ान-ए-चमन ये नुक्ता-रानी
चूँ ब्रहमनान ये बेद-ख़्वानी

नौबत-ए-रंगत जमुना रही है
शहनशा-ए-मज़ा दिखा रही है