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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

मोहम्मद इज़हारुल हक़

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उसे चाहें तो आहें
दिल की सब राहें धुएँ से तीरा-ओ-तारीक कर डालें

निगाहें यूँ कराहें
जैसे ता-हद्द-ए-नज़र उस की शुआएँ मर्ग-आसा जाल फैला दें

हर इक शब साँस के तारों को उलझाए
सहर-दम ख़्वाब-गह पर कस्मपुर्सी साया साया इस तरह मँडलाये

पैराहन-ए-लहू में तर-ब-तर जैसे किसी तुर्बत पे लहराए
उसे ढूँडें तो रस्ते

जान के दरपय
जहाज़ों कश्तियों से लहलहाते ज़िंदगी-परवर समुंदर

बर्फ़ से भर जाएँ
हर जानिब मिलें कोह-ए-निदा ग़ोल-ए-बायाबाँ

और कभी ख़ेमों की ख़ूनी धज्जियाँ टूटी तनाबें हड्डियाँ
हैबत दिलाएँ

कारवाँ कतराएँ
जैसे हम ज़मीं पर बोझ हों

हर सम्त सिदरा है
सितारे ख़ुशबुएँ जुगनू हवाएँ सब ग़लत रस्ते बताएँ

पाँव नेज़ों पर चलें
और वो तो क्या

दस्त-ए-तलब में अपनी ख़ाकिस्तर भी अन्क़ा हो
इसे पाएँ तो सारे महल

गिर जाएँ इरम उठ जाएँ
पेड़ों और दीवारों के साए उड़ चलें

सूरज की किरनें मुड़ चलें कुछ और दुनियाओं की जानिब
उँगलियाँ उट्ठें सन्नाटों की तरह

और साथ चलना ख़ल्क़ की इस्मत-दरी जैसे
ज़मीं अ'फ़ अ'फ़ से फ़नकारों से नेशों से भरी जैसे

उसे चाहें तो क्या
ढूँढें तो कैसे

पाएँ तो पा कर कहाँ जाएँ