हक़ीर ओ ना-तवाँ तिनका 
हवा के दोश पर पर्रां 
समझता था कि बहर ओ बर पे मेरी हुक्मरानी है 
मगर झोंका हवा का एक अलबेला 
तलव्वुन-केश 
बे-परवा 
जब उस के जी में आए रुख़ पलट जाए 
हवा आख़िर हवा है कब किसी का साथ देती है 
हवा तो बेवफ़ा है कब किसी का साथ देती है 
हवा पलटी 
बुलंदी का फ़ुसूँ टूटा 
हक़ीर ओ ना-तवाँ तिनका 
पड़ा है ख़ाक-ए-पस्ती पर 
ख़ुदा जाने कोई रह-गीर-ए-बे-परवा 
जब अपने पाँव से उस को मसलता है 
तो अपना ख़्वाब-ए-अज़्मत याद कर के उस के दिल पर क्या गुज़रती है
        नज़्म
नज़्म
गोपाल मित्तल

