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नया अहद-नामा | शाही शायरी
naya ahd-nama

नज़्म

नया अहद-नामा

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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बरसों से ये बाम-ओ-दर कि जिन पर
महकी हुई सुब्ह के हैं बोसे

यादों के यही नगर कि जिन पर
सजते हैं ये शाम के धुँदलके

ये मोड़ ये रहगुज़र कि जिन पर
लगते हैं उदासियों के मेले

हैं मेरे अज़ीज़ मेरे साथी
कब से मिरा आसरा रहे हैं

सुनते हैं ये मेरे दिल की धड़कन
जैसे ये मुझे सिखा रहे हैं

हँस-बोल के उम्र काट देना
मेरे यही दस्त-ओ-पा रहे हैं

बरसों से ये मेरी ज़िंदगी हैं
बरसों से मैं इन को जानता हूँ

हैं मेरी वफ़ा पे ये भी नाज़ाँ
हर बात मैं इन की मानता हूँ

लेकिन मिरे दिल को क्या हुआ है
मैं आज कुछ और ढानता हूँ

लगता है ये शहर-ए-दिल-बराँ भी
है पाँव की मेरे कोई ज़ंजीर

बस एक ही रात एक दिन है
हर रोज़ वही पुरानी तस्वीर

हर सुब्ह वही पुराने चेहरे
हो जाते हैं शाम को जो दिल-गीर

अब और कहीं से चल के देखें
किस तरह सहर की नर्म कलियाँ

किरनों का सलाम ले रही हैं
जाग उठती हैं किस तरह से गलियाँ

सब काम पे ऐसे जा रहे हैं
जैसे कि मनाएँ रंग-रलियाँ

देखें कहीं शाम को निकल कर
ढलते हुए अजनबी से साए

यूँ हाथ में हाथ ले रहे हों
जैसे कहीं घास सरसराए

इस तरह से पाँव चल रहे हों
जैसे कई पी के लड़खड़ाए

आने ही को हों मिलन की घड़ियाँ
सूरज कहीं ग़म का डूबता हो

महकी हो कहीं पे शब की दुल्हन
कचनार कहीं पे खिल रहा हो

हर गाम पे इक नया हो आलम
हर मोड़ पे इक नया ख़ुदा हो