मुझ को शिकवा है मिरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गए साथ मिरी उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब
इस में तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
इस में बचपन था मिरा और मिरा अहद-ए-शबाब
इस के बदले मुझे तुम दे गए जाते जाते
अपने ग़म का ये दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई ये एज़ाज़ में क्यूँ-कर पहनूँ
मुझ से ले लो मिरी सब चाक क़मीसों का हिसाब
आख़िरी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुम से मैं लौटा नहीं मायूस-ए-जवाब
आ के ले जाओ तुम अपना ये दमकता हुआ फूल
मुझ को लौटा दो मिरी उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब
नज़्म
नौहा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़