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नौहा-ए-जाँ | शाही शायरी
nauha-e-jaan

नज़्म

नौहा-ए-जाँ

खुर्शीद अकबर

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मैं था आवारा-ओ-बरजस्ता-ख़िराम
औराक़-ए-बंदगी उस की पनाह

नामा-ए-इश्क़ था रिश्तों का जवाज़
बर्क़-रौ में भी था कुछ वो भी रहा

इश्क़-ए-एहसास-ए-जुनूँ के आसार
कुछ अजब तरह बने नक़्श-ओ-निगार

फ़र्त-ए-जज़्बात से
इस दर्जा रहे हम लर्ज़ां

तीसरी क़ुव्वत-ए-वसवास कहाँ से आई
और

फिर टूट गया
लर्ज़ा-बर-अंदाम तअ'ल्लुक़ का पुल

सब्ज़ अरमानों पे
वो ओस पड़ी मत पूछो

अब तो वो
सहन-ए-तख़य्युल भी है मुद्दत से उदास

गाहे गाहे
किसी पहलू-ए-फ़लक में जानाँ

कुछ चमन-ज़ार महक उठते हैं
और

आती है सदा-ए-बुलबुल
इश्क़ वो ओस का क़तरा है

जिस के पड़ते ही
टूट जाती है सुराही गुल की