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नौ-जवान ख़ातून से | शाही शायरी
nau-jawan KHatun se

नज़्म

नौ-जवान ख़ातून से

असरार-उल-हक़ मजाज़

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हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था

तिरी चीन-ए-जबीं ख़ुद इक सज़ा क़ानून-ए-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कार-ए-सज़ा लेती तो अच्छा था

ये तेरा ज़र्द रुख़ ये ख़ुश्क लब ये वहम ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था

दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तिरे ज़ेर-ए-नगीं घर हो महल हो क़स्र हो कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़-ओ-समा लेती तो अच्छा था

अगर ख़ल्वत में तू ने सर उठाया भी तो क्या हासिल
भरी महफ़िल में आकर सर झुका लेती तो अच्छा था

तिरे माथे का टीका मर्द की क़िस्मत का तारा है
अगर तू साज़-ए-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

अयाँ हैं दुश्मनों के ख़ंजरों पर ख़ून के धब्बे
उन्हें तू रंग-ए-आरिज़ से मिला लेती तो अच्छा था

सनानें खींच ली हैं सर-फिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामान-ए-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था