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नक़ली फूल | शाही शायरी
naqli phul

नज़्म

नक़ली फूल

मुनीबुर्रहमान

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मैं ने जब पहले-पहल देखा था
ये मुझे कितने भले लगते थे

तुम ने गुल-दान में रक्खा था इन्हें
थी मिरे कमरे की ज़ीनत इन से

और अब थक गईं आँखें मेरी
देखते देखते सूरत इन की

ये महकते हैं, न कुम्हलाते हैं
दिन इन्हें छू के निकल जाते हैं

काश मौसम की अमल-दारी में
ये भी पाबंद-ए-तग़य्युर होते

जब ये खिलते तो कोई चुन चुन कर
गूँधता इन की लड़ी जूड़े में

और जब उन पे ख़िज़ाँ आ जाती
फेंक देता मैं इन्हें कूड़े में