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नफ़सियाती मरज़ | शाही शायरी
nafsiyati maraz

नज़्म

नफ़सियाती मरज़

ख़ालिद मुबश्शिर

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मीर तो नहीं हूँ मैं
जाने फिर भी ऐसा क्यूँ

रोज़ रोज़ होता है
रात के समुंदर में

चाँद जो कि मछली है
मोतियाँ उगलता है

और एक मोती से
जल-परी निकलती है

और मुझ से कहती है
क्यूँ उदास रहते हूँ

''नींद क्यूँ नहीं आती''
कौन याद आता है

किस का ग़म सताता है
उल्फ़तों के मारे हो

चाहतों के प्यासे हो
रात इक समुंदर है

जिस की मौज-ए-ज़ुल्मत में
आशिक़ों के नालों का

अन-कहे सवालों का
ज़हर ख़ूब होता है

सैर हो के पी लेना
फिर गले लगा लेना

मौत की दुल्हन को तुम
दफ़अतन ये होता है

आरज़ू की चौखट पर
दिल के टूट जाने से

दर्द चीख़ उठता है
इश्क़! तेरी तौबा है