हम जो इक जाँ के सफ़र पर हैं रवाँ बरसों से
हम को मालूम नहीं कब और कहाँ ख़त्म हो ये
हम तो बस तिश्ना-दहन लब-ब-दुआ कुश्ता-ए-ग़म
अपने होने ही में गुम पढ़ न सके हैं अब तक
वक़्त के बाब-ए-नदामत में निहाँ तहरीरें
उन को पढ़ लेते तो शायद न यूँ हैराँ होते
इक तमाशे की तरह वक़्त पे उर्यां होते
अपनी ख़्वाहिश को सर-ए-बज़्म न रुस्वा करते
अपने लम्हों को किसी तौर न ज़िंदाँ करते
नज़्म
नदामत
मोहम्मद अफ़सर साजिद