मैं भी अंजान था
तुम भी अंजान थे
लोग हैरान थे
इश्क़ आसान था
इश्क़ आसान था
उस की उफ़्ताद मुश्किल
न थी इस क़दर
अब्र की छाँव में
यूँ चले जा रहे
थे नए हम-सफ़र
उस के आगे मगर
थे अजब सिलसिले
फिर कड़े कोस थे
फिर कठिन थी डगर
दूर तक बे-कराँ
रेग-ए-सहरा थी फैली हुई
ऐसी आँधी चली
मैं भी था बे-अमाँ
तुम भी थे दर-ब-दर
लोग थे बे-ख़बर
इश्क़ हैरान था
मैं कहीं खो गया
तुम कहीं जा बसे
फूल खिलते रहे
लोग मिलते रहे
पर न मिल पाए हम
ऐ मिरे हम-सफ़र फिर न कहना कभी
इश्क़ आसान था इश्क़ आसान है
वक़्त अपने किए पर पशेमान था
कब पशेमान है
हाँ वो अपना ख़ुदा जो निगहबान था
वो निगहबान है
नज़्म
नामा-ए-इश्क़ है ख़ुदा के नाम
खुर्शीद अकबर