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नाकाम मुज़ाकरात | शाही शायरी
nakaam muzakaraat

नज़्म

नाकाम मुज़ाकरात

सिदरा सहर इमरान

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लोग रबर-बैंड की तरह
हाथों पे

चढ़ाए जा सकते हैं
पहने जा सकते हैं

पैरों में
काग़ज़ छोटी छोटी गोलियों में

तब्दील किए जा सकते हैं
जिन्हें

जब चाहो दीवार पे दे मारो
उन को कूड़े-दान में फेंका जा सकता है

जाले और वहशत उतारी जा सकती है कमरों की
इतनी भयानक और नोकीली हैं

उन की आवाज़ें
जो सूराख़ कर देती हैं

दीवार के कानों में
लोग अपनी लम्बी ज़बानों का बुरादा

भर देते हैं उन सूराख़ों में
जो तह-ख़ानों में जा निकलते हैं

तह-ख़ानों के ज़ीनों पर
काली सतरें हैं

चियूँटियों की
और मकड़ी की आली नस्लें

जो थूक से शामियाने बुनती हैं
मकड़ी के जाले काली सतरें और लोग

एक ही घर में रहते हैं
लेकिन अंजान रहते हैं

एक दूसरे के नामों से
इस लिए बहाल नहीं हो पाते

उन के सिफ़ारती तअ'ल्लुक़ात
रखी रह जाती हैं कोनों खुदरों में

ज़ेहनी हम-आहंगी की सारी फाइलें
और लोग

रबर-बैंड की तरह उन पर
चढ़ जाते हैं