EN اردو
ना-रसाई | शाही शायरी
na-rasai

नज़्म

ना-रसाई

अलीमुल्लाह हाली

;

ये समुंदर कई बार उछला है
हर बार

मौजों ने दूर
उन बुलंद और बाला

चट्टानों के उस पार जाने की ख़्वाहिश में
जस्तें लगाई हैं

इस तरह उछली हैं
जैसे उधर की फ़ज़ा

जो अभी तक रसाई से बाहर थी
अब दाम-ए-नज़ारा में आ चुकी है

मगर इन चट्टानों से उस पार की वुसअ'तें
अब भी नादीदा हैं

आज भी
वो जो दीवार की दूसरी सम्त में है

मिरे लफ़्ज़ की ज़द से
बाहर से शायद