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न जाने कब लिखा जाए | शाही शायरी
na jaane kab likha jae

नज़्म

न जाने कब लिखा जाए

हमीदा शाहीन

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तहय्युर की फ़ज़ाओं में
कोई ऐसा परिंदा है

जो पकड़ाई नहीं देता
है कोई ख़्वाब ऐसा भी

अज़ल से है जो अन-देखा
कोई ऐसी सदा भी है

समाअ'त से वरा है जो
बसारत की हदों से दूर इक मंज़र है जो अब तक

तसव्वुर में नहीं आया
कहीं कुछ है

जो इक पल दिल में आ ठहरे
तो जिस्म-ओ-जान के होने का इक बैन-ए-हवाला हो

जो गीतों में उतर आए
तो इस धरती से नीले आसमाँ तक वज्द तारी हो

जो लफ़्ज़ों में रचे तो बात फूलों की तरह महके
अगर लम्हों में धड़के तो ज़मानों में सदा फैले

अगर मंज़र के अंदर हो
तो बीनाई को अपना हक़ अदा करने की जल्दी हो

वो शायद है
इक ऐसी दास्ताँ जो रूह के अंदर है पोशीदा

इक ऐसी साँस जो सीने की तह में छुप के सोई है
इक ऐसा चाँद जो अफ़्लाक से बाहर चमकता है

मुक़द्दर ही बदल जाए
उसे गर लिख दिया जाए

हमारे दरमियाँ होना