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न हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में | शाही शायरी
na hath bag par hai na pa hai rikab mein

नज़्म

न हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में

आदिल रज़ा मंसूरी

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पलट कर देख भर सकती हैं
भेड़ें

बोलना चाहें भी तो बोलेंगी कैसे
हो चुकी हैं सल्ब आवाज़ें कभी की

लौटना मुमकिन नहीं है
सिर्फ़ चलना और चलते रहना है

ख़्वाबों के ग़ार की जानिब
जिस का रस्ता

सुनहरे भेड़ियों के दाँतों से हो कर गुज़रता है