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मुसाफ़िर | शाही शायरी
musafir

नज़्म

मुसाफ़िर

अज़ीज़ तमन्नाई

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वो अचानक चल दिया गोया सफ़र था मुख़्तसर
ज़िंदगी-भर जो सफ़र करता रहा चलता रहा

छाँव में अफ़्लाक की पलता रहा ढलता रहा
पास जो पूँजी उजालों की थी सब कुछ बाँट कर

राह के बे-माया ज़र्रों को बना कर आफ़्ताब
ख़ुद से ला-परवा ज़माने की नज़र से बे-नियाज़

ज़ोहद से फ़ितरी लगाओ दिल में तौक़ीर-ए-हिजाज़
जाने क्यूँ उस को पसंद आई थी ज़िंदी की नक़ाब

मरहले तारीक थे और मंज़िलें तारीक तर
उस की नन्ही रौशनी पैहम रही ज़ुल्मत-शिकन

सरसर-ए-बे-ए'तिदाली से गुरेज़ाँ फ़िक्र-ओ-फ़न
होश में था ता-दम-ए-आख़िर ज़मीर-ए-मो'तबर

वो मुसाफ़िर था अदम की राह में गुम हो गया
ग़म तो इस का है कि इक अच्छा सा इंसाँ खो गया