कबूतर मक़बरों पर रात दिन
दिन रात रहते हैं
मुसाफ़िर चलते रहते हैं
कबूतर दूध ऐसे पर
सियह दीवार की जाली से आती
धूप की कंघी से
जब हमवार करते हैं
तो बूढ़े मक़बरों पर
काई के जंगल महकते हैं
मुसाफ़िर चलते रहते हैं
ये बंजारे
जिन्हें बस चंद लम्हे ही ठहरना है
उन्हें रोको नहीं
ये मौसमी आबी परिंदे हैं
जिन्हें मैले परों के साथ उड़ना है
उन्हें रुकना नहीं आता
उन्हें रुकना नहीं आता

नज़्म
मुसाफ़िर चलते रहते हैं
वज़ीर आग़ा