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मुर्दा-ख़ाना | शाही शायरी
murda-KHana

नज़्म

मुर्दा-ख़ाना

मोहम्मद हनीफ़ रामे

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दुनिया की इल्ला-बिल्ला ठसी पड़ी है मुझ में
हाँ कुछ काम की चीज़ें भी हैं इस कबाड़-ख़ाने में

इल्हामी किताबों से ले कर फ़लसफ़ा-ए-अदब और शाइ'री तक की
लाइब्रेरियां भरी पड़ी हैं दिमाग़ में

आँखों में उतर कर देखें तो हुस्न-ए-दो-आलम पाएँगे जल्वा-अफ़रोज़
पूरे पूरे निगार-ख़ाने मेरे भी सनम-ख़ाने तेरे भी सनम-ख़ाने

कानों में बैठोओं से ले कर कोप-लैंड की समफ़नियाँ
और तानसेन की बंदिशों से रौशन-आरा बेगम की गायकी तक महफ़ूज़ है आज भी

लेकिन गंद तो मचा रक्खा है मेरे जिस्म ने
और इस के अंदर धड़कते दिल ने

गंदगी का डिपो है मेरा ये जिस्म
बल्कि कारख़ाना है गंदगी का

अच्छी से अच्छी चीज़ डालें आप इस में
बोल-ओ-बराज़ बना कर रख देता है उसे

डाल कर देखें हाँ हाँ ये फल डालें ये मिठाई
ये तिक्के और कबाब डालें इस में

और फिर नाक पर रूमाल रख कर देखें कि बनता क्या है इन का
ख़ैर जहाँ कार-ख़ाने हूँ वहाँ गंदगी तो होती है लाज़िमन

गंदगी न हो तो आलूदगी सही
ईद-ए-क़ुर्बान पर शहर का चक्कर तो लगया ही होगा आप ने

अज़ीज़-ओ-अक़ारिब से मिलने के लिए
जो कुछ सड़कों और गलियों में नज़र आता है ओझड़ियों और आँतों से उबलता हुआ

वही कुछ है मेरे अंदर भी
ये तो मेरी खाल का कमाल है जो आप ने पास बिठा रक्खा है मुझे

और अगर आप में झाँकने की हिम्मत हो मेरे दिल में
तो शायद अभी उठा दें अपने पास से मुझे

कर्दा गुनाहों की नहीं ना-कर्दा गुनाहों की बात कर रहा हूँ मैं
ख़्वाहिशों और हसरतों के जनाज़े पड़े हैं

मेरे दिल में क़तार-अंदर-क़तार
मैं ने तश्बीह दी थी कबाड़-ख़ाने से अपने आप को

असल में तो एक बहुत बड़ा मुर्दा-ख़ाना हूँ मैं
फ़सादात में क़त्ल-ए-आम देखा हो शायद आप ने

ज़लज़ले में मारे जाने वालों की लाशें निकालते तो देखा होगा लोगों को
या फिर टेलीविज़न पर बोसनिया और कोसोव में इजतिमाई क़ब्रों की खुदाई के मनाज़िर

जब लवाहिक़ीन कोशिश कर रहे होते हैं लाशों को पहचानने की
और नाक फट रहे होते हैं उन के सड़ांद से

जल्द-अज़-जल्द दोबारा दफ़ना दी जाती हैं ये लाशें
लेकिन मेरे दिल में ख़्वाहिशों और हसरतों की लाशें गल-सड़ गई हैं पड़े पड़े

और मैं फिर भी दफ़न नहीं करता उन्हें
दफ़्न करना चाहता ही नहीं

और चाहूँ भी तो कहाँ करूँ दफ़्न उन्हें
दिमाग़ में

दिमाग़ में कुलबुलाता हाफ़िज़ा कहाँ मोहलत देता है उस की
दिल ही तो है जिस में दफ़ना सकता हूँ उन्हें

इन्ही मुर्दा ख़्वाहिशों और हसरतों को देख देख कर तो जीता हूँ मैं
ये तो दफ़न होंगी मेरे साथ ही

और अब समझ में आता है कि क्यूँ बनाई जाती हैं बड़ी बड़ी क़ब्रें
बादशाह लोग तो मरने से पहले ही बनवा लिया करते थे अपने मक़बरे और एहराम

मुझे घिन आती थी बड़ी बड़ी क़ब्रों से
मैं कहा करता था देखो उन माल-ज़ादों को

ज़िंदगी में भी घेरे रखते थे ज़रूरत से ज़ियादा ज़मीन
और मर कर भी इतनी जगह घेर लेते हैं कि ख़ुदा की ज़िंदा मख़्लूक़ को मयस्सर नहीं सर छुपाने को

मर कर भी नहीं मिटती ज़मीन की हिर्स उन की
मगर अब सोचता हूँ शायद उन्हें वाक़ई ज़रूरत हो बड़ी क़ब्रों की

शायद उन के अंदर पड़े हूँ मुझ से भी ज़ियादा जनाज़े
ख़्वाहिशों और हसरतों के

शायद उन की ओझड़ियों और आँतों में ग़लाज़त हो मुझ से भी ज़ियादा
वैसे कहीं मैं भी तो जवाज़ नहीं ढूँढ रहा अपने लिए कुशादा क़ब्र का