EN اردو
मुरक़्क़ा-ए-इबरत | शाही शायरी
muraqqa-e-ibrat

नज़्म

मुरक़्क़ा-ए-इबरत

लाला अनूप चंद आफ़्ताब पानीपति

;

जल्वा-ए-हुस्न-ए-अज़ल आए तसव्वुर में अगर
गोशा-ए-दिल में मचलते हुए अरमाँ होंगे

इक हसीं गोर-ए-ग़रीबाँ पे हुआ यूँ गोया
ये भी कम्बख़्त कभी हज़रत-ए-इंसाँ होंगे

पाँव रखते भी नज़ाकत से अगर होंगे कहीं
बे-बदल हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ पे नाज़ाँ होंगे

फूल बिस्तर पे बिछाने को अगर हासिल थे
सैर के वास्ते बाग़ और गुलिस्ताँ होंगे

इत्र मलने के लिए कपड़े बदलने के लिए
महल-ओ-ऐवाँ में बहुत दस्त-ए-हसीनाँ होंगे

नित-नई रोज़ मयस्सर थी उन्हें बज़्म-ए-सुरूद
दिल बहलने के लिए सैंकड़ों सामाँ होंगे

एक लम्हा भी गुज़रता था जो तन्हाई में
मुज़्तरिब और परेशान ये ज़ीशाँ होंगे

गोर-ओ-मर्क़द पे यूँही सैर को आते होंगे
और सीनों में लिए हसरत-ओ-अरमाँ होंगे

क्या ख़बर थी कि उजड़ जाएगा गुलज़ार-ए-हयात
एक झोंके से हवा के न ये सामाँ होंगे

क्या यूँही मौत मिटाएगी जहाँ से हम को
क्या यूँही अपने लिए दश्त-ओ-बयाबाँ होंगे

ज़िंदगी में न करेंगे जो बशर कार-ए-सवाब
वक़्त-ए-रुख़्सत वो परेशान-ओ-पशेमाँ होंगे

'आफ़्ताब' उन की समझता हूँ हयात-ए-अबदी
जो बशर धर्म पे सौ-जान से क़ुर्बां होंगे