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मुंजमिद आँखें | शाही शायरी
munjamid aankhen

नज़्म

मुंजमिद आँखें

महमूद अयाज़

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खुली आँखों को कोई बंद कर दो
खुली आँखों की वीरानी से हौल आता है

कोई इन खुली आँखों को बढ़ कर बंद कर दो
ये आँखें इक अनोखी यख़-ज़दा दुनिया की

साकित रौशनी में खो गई हैं
अब इन आँखों में

कोई रंग पैदा है न कोई रंग पिन्हाँ है
न कोई अक्स-ए-गुल-बन है

न कोई दाग़-ए-हिर्मां है
न गंज-ए-शाएगाँ की आरज़ू-ए-बे-निहायत है

न रंज-ए-राएगाँ का अक्स-ए-लर्ज़ां है
अगर कुछ है तो बस

इक यख़-ज़दा नया का नक़्श-ए-जावेदाँ है
ये आँखें

अब शुआ-ए-आरज़ू की हर किरन से यूँ गुरेज़ाँ हैं
कि पत्थर बन गई हैं

ये आँखें मर गई हैं