खुली आँखों को कोई बंद कर दो
खुली आँखों की वीरानी से हौल आता है
कोई इन खुली आँखों को बढ़ कर बंद कर दो
ये आँखें इक अनोखी यख़-ज़दा दुनिया की
साकित रौशनी में खो गई हैं
अब इन आँखों में
कोई रंग पैदा है न कोई रंग पिन्हाँ है
न कोई अक्स-ए-गुल-बन है
न कोई दाग़-ए-हिर्मां है
न गंज-ए-शाएगाँ की आरज़ू-ए-बे-निहायत है
न रंज-ए-राएगाँ का अक्स-ए-लर्ज़ां है
अगर कुछ है तो बस
इक यख़-ज़दा नया का नक़्श-ए-जावेदाँ है
ये आँखें
अब शुआ-ए-आरज़ू की हर किरन से यूँ गुरेज़ाँ हैं
कि पत्थर बन गई हैं
ये आँखें मर गई हैं
नज़्म
मुंजमिद आँखें
महमूद अयाज़