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मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है | शाही शायरी
mujhe to intizar-e-ishq mein hi lutf aata hai

नज़्म

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

अलीना इतरत

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मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
किसी की चाहतों का रंग हर धड़कन पे तारी हो

अजब सा कर्ब बेचैनी मुसलसल बे-क़रारी हो
निगाहें मुंतज़िर फ़ुर्क़त कसक और आह-ओ-ज़ारी हो

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
कभी पहलू में मिलता है कभी वो दूर जाता है

किसी के जिस्म ओ जाँ को इश्क़ हर लम्हा जलाता है
तसव्वुर कैसे कैसे दिल-नशीं मंज़र दिखाता है

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
अभी तो फ़ुर्क़त-ए-जानाँ के क़िस्से ख़ूब लिखने हैं

दबी चाहत के नग़्मे और तराने ख़ूब लिखने हैं
रिफ़ाक़त में जुदाई के फ़साने ख़ूब लिखने हैं

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
'अलीना' इंतिज़ार-ए-इश्क़ ग़ज़लों को सजा देगा

विसाल-ए-यार तो बस चंद लम्हों का मज़ा देगा
मिलन हो फिर जुदाई ऐसा पल हर पल सज़ा देगा

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है