मुझे रस्ता नहीं मिलता
मैं जौहड़ में खिले फूलों के हक़ में बोल कर
दलदल की तह में धँस गया हूँ
में नहीं कहता कि ये किस आसमाँ का कौन सा सय्यारा-ए-बद है
मगर ये तह ज़मीं की आख़िरी छत है
यहाँ दिन ही निकलता है न शाम-ए-उम्र ढलती है
परिंदा भी नहीं कोई कि जिस के पाँव से कोई
नविश्ता बाँध कर भेजूँ तो समझूँ उस से मिलने का
बहाना हाथ आया है
सितारा भी नहीं कोई कि जिस से गुफ़्तुगू ठहरे
नवाह-ए-जिस्म में फैली ख़िज़र-आसार तंहाई मिरी साँसें बढ़ाती है
मुझे इस दलदली गोशे से जाने का कोई रस्ता नहीं मिलता
सन ऐ मेरी ख़िज़र-आसार तंहाई
मिरी ख़ातिर भी थोड़ा सा तरद्दुद कर
मुझे भी तो 'सिकंदर' के जनाज़े में पहुँचना है
मुझे भी आब-ए-हैवाँ से छलकती मौत का नौहा सुनाना है
मुझे भी दूर जाना है
सन ऐ मेरी ख़िज़र-आसार तंहाई
मुझे इस तुख़्म-ए-इम्काँ के दरीचे से निकलने दे
नुमू की चाल चलने दे
मुझे रस्ता नहीं मिलता
नज़्म
मुझे रस्ता नहीं मिलता
अब्बास ताबिश