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मुझे घर याद आता है | शाही शायरी
mujhe ghar yaad aata hai

नज़्म

मुझे घर याद आता है

मीराजी

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सिमट कर किस लिए नुक़्ता नहीं बनती ज़मीं कह दो
ये फैला आसमाँ उस वक़्त क्यूँ दिल को लुभाता था

हर इक सम्त अब अनोखे लोग हैं और उन की बातें हैं
कोई दिल से फिसल जाती कोई सीने में चुभ जाती

इन्ही बातों की लहरों पर बहा जाता है ये बजरा
जिसे साहिल नहीं मिलता

मैं जिस के सामने आऊँ मुझे लाज़िम है हल्की मुस्कुराहट में कहें ये होंट तुम को
जानता हूँ दिल कहे 'कब चाहता हूँ मैं'

इन्ही लहरों पे बहता हूँ मुझे साहिल नहीं मिलता
सिमट कर किस लिए नुक़्ता नहीं बनती ज़मीं कह दो

वो कैसी मुस्कुराहट थी बहन की मुस्कुराहट थी, मेरा भाई भी हँसता था
वो हँसता था बहन हँसती है अपने दिल में कहती है

ये कैसी बात भाई ने कही देखो वो अम्माँ और अब्बा को हँसी आई
मगर यूँ वक़्त बहता है तमाशा बन गया साहिल

मुझे साहिल नहीं मिलता
सिमट कर किस लिए नुक़्ता नहीं बनती ज़मीं कह दो

ये कैसा फेर है तक़दीर का ये फेर तो शायद नहीं लेकिन
ये फैला आसमाँ उस वक़्त क्यूँ दिल को लुभाता है

हयात-ए-मुख़्तसर सब की बही जाती है और मैं भी
हर इक को देखता हूँ मुस्कुराता है कि हँसता है

कोई हँसता नज़र आए कोई रोता नज़र आए
मैं सब को देखता हूँ देख कर ख़ामोश रहता हूँ

मुझे साहिल नहीं मिलता!