मैं अपनी ज़ात के ज़िंदान में कब तक रहूँ तन्हा
सहूँ तन्हा मैं अपने आप को कब तक
भला कब तक
उदासी और तन्हाई के इन बे-ज़ाइक़ा ज़ख़्मों को
पैहम चाटता जाऊँ
मुसलसल जागता जाऊँ
कि हब्स-ए-मुस्तक़िल में ज़िंदगी करने से बेहतर है
मैं अपने ख़ोल से बाहर निकल आऊँ
किसी ख़ुद-कुश धमाका करने वाले से लिपट जाऊँ
बिखर जाऊँ
मिरे अपने भी तो कुछ ख़्वाब हैं 'जाज़िल'
जो मेरी नींद की वादी में आने की तमन्ना
दिल में रखते हैं
जो मेरी राह तकते हैं
मुझे ख़्वाबों को आँखों में पिरोना है
मुझे आज़ाद होना है
नज़्म
मुझे आज़ाद होना है
जीम जाज़िल