हवा कहीं नाम को नहीं थी
अज़ान-ए-मग़रिब से दिन की पसपा सिपाह का दिल धड़क रहा था
तमाम रंगों के इमतियाज़ात मिट चुके थे
हर एक शय की सियह क़बा थी
जगह जगह बाम-ओ-दर के पैकर
उफ़ुक़ के रंगीन चौखटे में
मिसाल-ए-तस्वीर जम गए थे
शजर हजर सब के सब गिरेबाँ में सर झुकाए
मुहासबा कर रहे थे दिन भर के नेक ओ बद का
तवील क़ामत हज़ीं खजूरें
कटी हुई साअतों के मातम में
बाल खोले हुए खड़ी थीं
नशेमनों को पलटते ताइर
कुछ ऐसे थम थम के उड़ रहे थे
कि सफ़्हा-ए-आसमां पे गोया
सराब-ए-परवाज़ बन गए थे
इधर मिरा दिल
धड़क धड़क कर
अजीब इबरत भरी नदामत से सोचता था
कि आज का दिन भी कट गया है
नज़्म
मुहासबा
ख़ुर्शीद रिज़वी