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मुहाजिर | शाही शायरी
muhajir

नज़्म

मुहाजिर

एजाज़ अहमद एजाज़

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यहाँ
कभी कभी धूप भी

ज़ीना ज़ीना यूँ उतरी है
जैसे अजनबी हो

और मुझे वो लोग याद आए हैं
जो अपने वतन से बिछड़ गए

मुहाजिर जिला-वतन
जिन्हों ने समझा था कि अजनबी शहर में मौत

कम लोगों को आती है
जो यहाँ इस गुमान में आए थे

कि आफ़ियत दाइम रहेगी
तुम ने ढलते सायों की सियासत से गुरेज़ किया है

तुम धूप से डरे हो
तुम ने आँख यूँ बंद कर ली है जैसे पक्की ईंट है

मेरे तुम्हारे दरमियान अब रोज़-मर्रा
हमदर्दियों के लफ़्ज़ भी नहीं