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मुदावा | शाही शायरी
mudawa

नज़्म

मुदावा

आफ़ताब शम्सी

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भरे बाज़ार में इक शख़्स अब तक
उसे मुड़ मुड़ के देखे जा रहा है

नहीं इतनी भी सुध बाक़ी कि सोचे
ये कब का वाक़िआ याद आ रहा है

अयाँ सूरत से है उस की कि जैसे
ज़मीं पैरों के नीचे हिल गई हो

कोई शय जो कभी गुम हो गई थी
अचानक रास्ते में मिल गई हो!