EN اردو
मोहब्बत की एक नज़्म | शाही शायरी
mohabbat ki ek nazm

नज़्म

मोहब्बत की एक नज़्म

इफ़्तिख़ार आरिफ़

;

मिरी ज़िंदगी में बस इक किताब है इक चराग़ है
एक ख़्वाब है और तुम हो

ये किताब ओ ख़्वाब के दरमियान जो मंज़िलें हैं मैं चाहता था
तुम्हारे साथ बसर करूँ

यही कुल असासा-ए-ज़िंदगी है इसी को ज़ाद-ए-सफ़र करूँ
किसी और सम्त नज़र करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो

मिरे दिल के जादा-ए-ख़ुश-ख़बर पे ब-जुज़ तुम्हारे कभी किसी का गुज़र न हो
मगर इस तरह कि तुम्हें भी उस की ख़बर न हो