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मोहब्बत का घर | शाही शायरी
mohabbat ka ghar

नज़्म

मोहब्बत का घर

वर्षा गोरछिया

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याद रहे
चाहतों का ये शहर

ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली

और कच्चा मकाँ मोहब्बत का
जो हमारा है

ख़ुश्बूओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासात की छतें

हँसी और आँसुओं से
लिपा-पुता आँगन है

हरा-भरा
गहरी छाँव वाला

प्यार का एक पेड़ है जहाँ
क़िस्सों के चौके में

बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से

तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए
शिकायतों के धुएँ से

काले कुछ बर्तन
हमारा मुँह ताकते हैं

कि क्यूँ नहीं उन्हें साफ़ किया
रगड़ कर हम ने

भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा

रेशमी चादरों में
यादों की सिलवटें हैं

आले में जलता चराग़
वो खूटियों पर लटकते

दो जिस्मों की झिल्लियाँ
जंगलों और खिड़कियों से

झाँकती चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से

टपकती हुई
बरसात की पागल बूँदें कुछ

हवा के कुछ झोंके
और न जाने क्या क्या

सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों

रिवाज़ें बोलियाँ लगाएँगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना

और ख़रीद लेंगे
जनम के ज़मीन-दार

वो मकाँ हमारा