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मिट्टी थी किस जगह की | शाही शायरी
miTTi thi kis jagah ki

नज़्म

मिट्टी थी किस जगह की

अबरार अहमद

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बे-फ़ैज़ साअ'तों में
मुँह-ज़ोर मौसमों में

ख़ुद से कलाम करते
उखड़ी हुई तनाबों

दिन-भर की सख़्तियों से
उक्ता के सो गए थे

बारिश थी बे-निहायत
मिट्टी से उठ रही थी

ख़ुश्बू किसी वतन की
ख़ुश्बू से झाँकते थे

गलियाँ मकाँ दरीचे
और बचपने के आँगन

इक धूप के किनारे
आसाइशों के मैदाँ

उड़ते हुए परिंदे
इक उजले आसमाँ पर

दो नीम-बाज़ आँखें
बेदारियों की ज़द पर

ता-हद्द-ए-ख़ाक उड़ते
बे-सम्त बे-इरादा

कुछ ख़्वाब फ़ुर्सतों के
कुछ नाम चाहतों के

किन पानियों में उतरे
किन बस्तियों से गुज़रे

थी सुब्ह किस ज़मीं पर
और शब कहाँ पे आई

मिट्टी थी किस जगह की
उड़ती फिरी कहाँ पर

इस ख़ाक-दाँ पे कुछ भी
दाइम नहीं रहेगा

है पाँव में जो चक्कर
क़ाएम नहीं रहेगा

दस्तक थी किन दिनों की
आवाज़ किन रुतों की

ख़ाना-ब-दोश जागे
ख़ेमों में उड़ रही थीं

आँखों में भर गई थी
इक और शब के नींदें

और शहर-ए-बे-अमाँ में
फिर सुब्ह हो रही थी