EN اردو
मिरे पर न बाँधो | शाही शायरी
mere par na bandho

नज़्म

मिरे पर न बाँधो

ग़ज़ाला ख़ाकवानी

;

परों को मिरे तुम न रेशम की डोरी से बाँधो
न काटो इन्हें तुम

कि मुझ को भी उड़ने दो ऊँची उड़ान
मैं तितली हूँ ऐसी

कि जिस के परों से
चमकती झमकती हैं

रंगों की मौजें
ये मौजें मिरी राह की मिशअलें बन गई हैं

मिटाएँगी जो तेरी मेरी तीरा शबों की
धुँदलके मिटाएँगी सुब्हों के मेरी

परों को मिरे तुम न रेशम की डोरी से बाँधो
न काटो इन्हें तुम

कि उन ही सुनहरी परों के सहारे
मुझे पार करना है इस राएगाँ दश्त को

और ख़यालों के ऐसे जज़ीरे में जाना है
जिस तक किसी की रसाई भी मुमकिन नहीं है

मिरे वास्ते जो हमेशा से नादीदनी है
मगर मैं ने बख़्शे हैं उस को ख़यालों के रंगीन पैकर

उतरना है उस देस में
जिस के फूलों की ख़ुश्बू

मिरी मुंतज़िर है
रंगों के पैकर मिरे मुंतज़िर हैं

मुझे ढूँडते हैं
वहाँ अंदलीबों के नग़्मे

उसी देस में
कितनी नौ-ख़ेज़ कलियों के रंगीं-बदन में मचलती हुई

कितनी मुँह-ज़ोर ख़ुशबुएँ
बंद-ए-क़बा तोड़ने को हैं बेचैन

सब इस्तिआ'रे मिरे वास्ते हैं नई ज़िंदगी के
बुलाते हैं मुझ को

परों को मिरे तुम न रेशम की डोरी से बाँधो
न काटो इन्हें तुम