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मेरी तारीख़ का लुंडा बाज़ार | शाही शायरी
meri tariKH ka lunDa bazar

नज़्म

मेरी तारीख़ का लुंडा बाज़ार

सरमद सहबाई

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सारी दुकानें इक इक कर के घूम आया हूँ
लेकिन अब तक नंगा हूँ

सारे सूरमा शायद मेरे क़द से बहुत बड़े थे
उन के कपड़े मेरे जिस्म पे जाने कैसे फ़िट आएँगे

ऐसी ऐसी हैबतनाक ज़रा-बक्तर में छुप कर
मैं शायद गुम हो जाऊँ

इस तारीख़ के मीलों फैले बाज़ारों में
मेरे नाप का कोई कोट नहीं है

शायद मेरे क़द का कोई सूरमा मरा नहीं है