EN اردو
मेहवर | शाही शायरी
mehwar

नज़्म

मेहवर

एहसान अकबर

;

क़दम मिट्टी पे रखती हो
कि अर्श ऊपर ठहरते हैं

कि जब तुम पाँव धरती हो
तो धरती के जिगर की धड़कनें भी आज़माती हो

बहारों में बिखरतीं तो तुम्हें बस ढूँडते फिरते
मगर तुम रंग-ओ-बू को अपना पस-मंज़र बनाती हो

ख़ुश-दिली के क़हक़हे की नुक़रई घंटी के नग़्मों की खनक के साथ
सारे मंज़रों पर फैल जाती हो

वो साअ'त जिस में तुम दम लो
ज़माने की हर इक तक़दीम से बाहर

कोई फैला हुआ लम्हा ठहरती है
वो सब गोशे जहाँ तन्हाई तुम को खींच ले जाए

वहीं तो रेशमी निकहत की तनवीरें बिखरती हैं
ये तस्वीरें

कि जिन में तुम ने देखा
लोग दिन के हफ़्त-ख़्वाँ को काटते गुज़रे

ये सब ख़ूँ थूकते
ज़ख़्म अपने अपने चाटते इंसाँ

फ़क़त उस शाम की आहट पे जाते हैं
जहाँ तुम हो